आमतौर पर हम प्रकृति को बचाने की बातें करते हैं। वातावरण को शुद्ध करने के उपाय सोचते हैं और साफ सफाई के नारे लगाते हुए शपथ लेते हैं, मगर मुट्ठी भर कार्य करने के बाद हम दूसरे कार्य और जीवनयापन के साधनों को जुटाने में यह सब बातें भूल जाते हैं।

हमारे देश की लगभग 136 करोड़ अदद आबादी में से केवल कुछ हजार लोग शपथ पर अमल करते हुए पर्यावरण से जुड़ उनके संरक्षण का कार्य कर पाते है।ऐसे ही एक संगठन की बात आज मैं आपसे सांझा करती हूं।

7-8 बच्चे साथ ही18-20 वर्ष के युवाओं का एक दल जो महीने में दो रविवार चुनता हैं और चल पड़ता है पर्यावरण रक्षण की मुहिम पर। ये बच्चे अपने छोटे- बड़े सूत्रों के माध्यम से पौधे खरीदते हैं और उन्हें बड़े-बड़े खाली बेकार ड्रम में मिट्टी भरकर रोपते हैं, फिर घर-घर जाकर उन पौधों को उन घरों में स्थापित करवाते हैं। दरवाजे- दर- दरवाजे घंटी बजाते, दरवाजे खटखटाते, सुबह से भरी अपने अंदर की ऊर्जा को दोपहर तक बांटते हैं। कहीं सहयोग मिलता है तो कहीं असहयोग भी, क्योंकि आज के दौर में अभी कुछ संकीर्ण सोच के लोग पौधों के ड्रम को घर में रखने से पहले यह सोचते हैं कि इस हरियाली से मच्छर पैदा होगा, सफाई में विघ्न पड़ेगा इत्यादि l पर नहीं, यह बच्चे तो ठान चुके हैं कि ये पर्यावरण को और नहीं बिगड़ने देंगे चाहे कोई उन्हें समझे या नहीं, कोई उनका साथ दे या नहीं। और सच भी तो है अगर वर्तमान सोया है तो क्या ज़रूरी है भविष्य भी सोता रहे।

जड़ों से जुड़ने के लिए अंकुर को अधिक ताप और तेज हवा का सामना करना पड़ता है मगर यदि अंकुर खुद को सशक्त कर लेगा तो जड़ को मजबूत भी कर लेगा। आज आवश्यकता है प्रकृति को समझने की, उससे हाथ मिलाने की, उसे सहलाने की,जड़ों से जुड़ने की और इन जैसे बच्चों की, जो कुदरत को समझने का प्रयास कर उसे संवारने के लिए प्रयासरत हैं।

हाथ से हाथ जो मिलाएंगे, अपना पर्यावरण बचा पाएंगे
जो आज ना देखा कुदरत को, तो आने वाला कल फिर हम न देख पाएंगे।।

ममता जैन

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