आज समूचा विश्व जल आपूर्ति की समस्या से ग्रसित है। ओर कही नहीं हमारे देश भारत की ही बात करें तो देश भर में आज की स्थिति में कई ऐसे शहर व गाँव है जहां के रहवासियों को पीने व रोजमर्रा की जरूरतों की पूर्ति के लिए पानी की जुगत भिड़ाने में घण्टों की मेहनत या भारी आर्थिक भार ढोना पड़ता है।

स्थिति स्पष्ट है कि प्रकृति के निरंतर दोहन से पर्यावरणीय संतुलन बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो चुका है जिससे अल्प वर्षा, भूमि का कटाव, ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि, भू-जल स्तर में तेज़ी से गिरावट, भूमिगत तापमान में वृद्धि सामान्य व हमारी दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुके है।

आज के परिपेक्ष्य में गौर करें तो हम इस स्थिति से उभरना तो चाहते है लेकिन चाह कर भी नहीं उभर पा रहे है क्योंकि इस पर्यावरणीय असंतुलन के दलदल में हम मानवीय प्रजाति गले तक धस चुकी है। और अब जब जान हलक में आ अटकी है तब हम नए-नए उपाय इस प्राकृतिक आपदा से निकलने के लिए खोज रहे हैं। जिसके चलते हम करोड़ों रुपये सरकारी प्रोजेक्ट्स के नाम पर खर्च चुके है और भविष्य में ख़र्चने की योजनाओं पर विचार कर रहें। लेकिन क्या कभी हमनें अपने स्वविवेक से अपने जीवन में इस सर्वदात्री माँ प्रकृति की सेवा के लिए कोई काम किया है ?

क्या प्रकृति या इसके घटकों के रखरखाव व संतुलन, संरक्षण के लिए कोई प्रयास अपनी ओर से किया है। निश्चित ही बहुत कम प्रतिशत उन लोगों का रहा होगा जिन्होंने इस प्रकृति को माता तुल्य जानकर इसकी सेवा की होगी इसके इतर फोटो खिंचाने के लिए तो कई प्रकृति प्रेमी प्रतिवर्ष लाखों पौधे रोपते आ रहे है और यदि आज उनमें से 10% पौधे भी जीवित वृक्ष के रूप में खड़े होते तो पर्यावरण की स्थिति शायद इतनी दयनीय नहीं होती इसमें कोई संकोच नहीं है।

अब ऐसा जरूरी तो नहीं है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए करोड़ों के प्रोजेक्ट्स ही शुरू हो तभी पर्यावरणीय संतुलन बने। कहने का आशय है कि अगर हर व्यक्ति इस प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करें तो जैसी स्थिति बिगड़ी है वैसे सुधर भी जायेगी। और इसी मानव कल्याणकारी दृष्टिकोण को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने प्रकल्प : पर्यावरण संरक्षण के माध्यम से शुरू किया है। जिसमें सम्मिलित सभी भारतीयों को अपने पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होने व उसे संरक्षित करने हेतु संकल्पित किया जाना है।

शुरूआती दौर में हम देखें तो जीवन में प्रकृति घटकों में हवा व जल ( पेड़ व जलाशय ) मुख्य है और दोनों का सम्बंध में एक दूसरे के पूरक है। इनका होना ही जीवन की संभावना है। इसलिए महत्वपूर्ण है कि हम अपने व अपनी भावी पीढ़ियों के कुशल जीवनव्यापन के लिए संतुलित पर्यावरण की अमूल्य निधि को सँजोने के लिए हर स्तर पर ईमानदारी से प्रयास शुरू करें।

इसी उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस प्रकल्प को उठाया भी है।

बेहतर है कि हम अधिक धन न खर्च करते हुए आपसी सहयोग व शारिरिक श्रम से इन पर्यावरणीय घटकों के संरक्षण के लिए प्रयास करें और ये संभव भी है। मध्यप्रदेश के जनजातीय जिलों खरगोन,अलीराजपुर,झाबुआ,बड़वानी, में हलमा नामक कार्यप्रणाली से यह संभव भी हुआ है और बेहतर प्रकृति अनुकूल परिणाम भी देखने को मिले है।

[ हलमा कोई पर्व तो नहीं लेकिन हां ये देशभर के प्रकृति पूजकों और यहाँ के आदिवासी हिंदू समुदाय के लिए किसी खास त्यौहार से कम भी नहीं। वास्तविक रूप से तो हलमा एक आदिवासी समाज की प्रथा है, जिसके चलते किसी समस्याग्रस्त व्यक्ति विशेष की पूरा समाज उसके द्वारा हलमा (मदद) बुलाये जाने पर बिना किसी लालच या अन्य अपेक्षा के मदद करने पहुँचता है। ये मदद आर्थिक, पारिवारिक, श्रमिक किसी भी रूप में हो सकती है लेकिन पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में यहाँ के हिंदू आदिवासी समुदाय के लोगों ने हलमा को एक नया स्वरूप दिया है। ]

अपने जिलों में बढ़ते पर्यावरणीय असंतुलन व जल आपूर्ति समस्या के चलते यहाँ के लोगों ने सर्वदात्री प्रकृति माता के लिए हलमा बुलाया और वर्षा ऋतु के पहले बंजर पड़ी पहाड़ियों पर ढलान की ओर गड्ढों को खोदना शुरू किया और उनमें वर्षा जल का संरक्षण किया। ओर बाद के दिनों में उस जल का उपयोग किया। बुद्धि कौशल कहो या जुगाड़ की ये तकनीक काम कर गई और आज स्थिति है कि यहां से जल संकट छूमंतर हो गया है वहीं दूसरी ओर हलमा को एक वैश्विक प्रसिद्धि भी मिली।

ठीक ऐसे ही आगे भी हम कुछ प्रयास और सुझाव हलमा जैसी प्रेरक कहानी, किस्सों के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस जन कल्याणकारी प्रकल्प : पर्यावरण संरक्षण के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाकर पर्यावरण संरक्षण के प्रति जनजागृति के लिए सदैव करते रहेंगे। अभी के लिए विदा….

जय हिंद, वंदेमातरम!

कुलदीप नागेश्वर पवार (पत्रकार)
पत्रकारिता भवन इंदौर

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *